Lekhnee

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Sunday, November 12, 2006

ज्ञिन्दगी

ज्ञिन्दगी
प॒कृति की गोद में
बीहङों से गुज्ञरती
एक प्यासी नदी
है किसी खोज में
बेरूखी में कभी
और कभी सोज्ञ में
पेंच ओ खम झेलती
बेखबर खेलती
एक नन्ही हंसी
बनके छलके कभी
पत्थरों पर पटक
सिर को रोती रही
धूल माटी में खुद को
मिलाती हुई
हाय बरसात से
तन भिगाती हुई
गाँव से चल गुजर
घूमी शहरोशहर
फिर मुङी सोचकर
किस गली किस डगर
होगा अपना भी घर
एक दिन पर्वतों से
समंदर को देखा
जिसकी सीमा नहीं थी
थी कमज्ञोर रेखा
बङा मनचला था
सनम बावरा था
उससे मिलने को उकसी
चली झूमती
पर्वतों से उतरती
राहें कठिन थीं
कई मोङ आये
बहुत दिल को अखरे
कई मन को भाये
रूक ना सकी
मीलों चलती रही वो
स्वंय को मिटाती
मचलती रही वो
है लगन कि कहीं तो
मिलेंगे पिया
उमंग से उछलता
धङकता हिया
ज्ञिन्दगी खोजती जो
किसने है पाया
सागर से गहरी
मुक्ती की छाया
समय से परे
और दुनिया कोई हो
तन मन से आगे
गगन तो कोई हो