Saturday, March 25, 2006

आवाज्ञ में

आवाज्ञ में

आज फिर दर्द का इक नया रंग है
आज फिर इक हकीकत मेरे संग है

चाहा था नज्ञरें ज्ञरा फेर लूँ
दूर तक यूँ भी राहें मेरी बंद हैं

बेवफा जिन्दगी से शिकायत न की
इम्तहाने सबर का ये क्या ढंग है

जब्त और ताब मुझमें अगर है बहुत
दिल में छिङी फिर ये क्या जंग है

अश्क थम जायें तो फिर सदा दूं तुम्हें
आज आवाज्ञ में जिरह और तंज है

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